कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
अजी, होना-हवाना क्या है?
जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घड़ियाँ भी आती हैं, जब किसी काम में जी नहीं लगता। न सिलसिले से कुछ सोचने को जी चाहता है, न पढ़ने को और न कुछ करने को। तन चाहे बहुत थका न हो, पर मन थका रहता है।
तन थका हो तो नींद उसकी अचूक दवा है, पर इन घड़ियों में नींद भी नहीं आती। दिल और दिमाग पर मायूसी का अजीब साया-सा पड़ा रहता है। आमतौर पर ऐसा तब होता है, जब आदमी के सामने कोई ऐसा मसला पेश होता है कि वह उसे हल नहीं कर पाता और मजबूरी यह होती है कि बिना हल किये बैठा जा नहीं सकता। अब आदमी इस उधेड़-बुन में कि फिर होगा क्या? तब वह सोचते-सोचते इतना थक जाता है कि फिर सिलसिले से सोचना भी उसके बस का नहीं रहता।
औरों का भी ऐसा हाल होता होगा; क्योंकि यह कोई पेटेण्ट प्रयोग तो है नहीं कि मेरी ही मिल्कीयत हो और वे इसका कुछ इलाज भी करते होंगे, पर मुझे इसकी कोई दवा अभी तक मालम नहीं हो सकी। हाँ. एक बात ज़रूर है कि इन घड़ियों में अगर कहीं क़िस्मत से चचा मिल जाएँ तो पाँच-सात मिनिटों में ही यह मायूसी छूमन्तर हो जाती है और तन-मन का थकान उतर-सा जाता है। तभी तो हम लोग कभी-कभी हँसी में उन्हें चचा विमटो कहकर, उनके प्रति अपने मन का सम्मान प्रदर्शित किया करते हैं।
जिन्हें मायूसी का यह दौरा-सा उठता है और कभी-न-कभी यह सभी को उठता होगा, वे सब चाहेंगे कि मैं चचा का नुसख़ा उन्हें बता दूँ और वे भी किचनर कम्पनी के मिस्टर पाइबा या गोविन्द अत्तार के पण्डित भोलानाथ से मँगाकर उससे फ़ायदा उठाएँ, पर बता दूँ क्या ख़ाक ! चचा न डॉक्टर हैं, न हकीम, न वैद्य। यहाँ तक कि वे झाड़-फूंक करनेवाले ओझा भी नहीं कि उनका ताबीज़ ही भिजवा दूँ।
"फिर क्या हैं वे?''
यह एक मुनासिब सवाल है। चचा अलताफुर्रहमान एक उर्दू अख़बार के एडीटर हैं। उम्र कोई साठ साल होगी। हमारे शहर में अगर आप देखें कि पानों से मसूड़े रँगे, एक पुराने अचकन से तन ढके, सफ़ेद बालों को मेहँदी से लाल किये और टूटे फ्रेम के सफ़ेद चश्मे से झाँकती आँखों को बरेली के सुरमे से आँजे, अपनी पुरानी तुर्की टोपी को ज़रा-सा बाँकपन दिये, एक बूढ़े मियाँ कहीं अपनी छड़ी को टेकते जा रहे हैं तो समझ लीजिए कि वे हमारे चचा हैं और बस बिना तकल्लुफ़ आप उनसे बातें कीजिए. चाहें तो उनका नुसख़ा भी पूछिए। शरमाने या सकुचाने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि हमारे साथ ही वे आपके भी तो चचा हैं !
“जी, हमारे चचा कैसे? हमसे तो उन बेचारों की कभी दीद-शनीद भी नहीं हुई?"
ठीक है, आप यह कह सकते हैं और मुझ पर नाराज़ भी हो सकते हैं, पर असल में नाराज़ी की कोई बात नहीं। मेरे पिताजी उन्हें चचा कहा करते थे, मेरे चचा तो वे हैं ही और मेरे बच्चे भी उन्हें चचा कहा करते हैं। असल में वे जगत्-चचा हैं और आप भी हैं इस जगत् के ही निवासी, लिहाज़ा इस हुलिये से उन्हें पहचानकर आप उन्हें अपना भी चचा मान सकते हैं और उनसे मायूसी दूर करने का नुसखा पूछ सकते हैं।
और कहा तो मैंने अभी आपसे कि वे एडीटर हैं, हकीम-वकीम नहीं। फिर भी मेरा हवाला देकर आप उनसे नुसख़ा पूछ सकते हैं। जानते हैं आप, वे क्या कहेंगे? सुनते ही ज़ोर से क़हक़हा लगाएँगे, दो-चार इधर-उधर की बातें सुनाएँगे और अन्त में कहेंगे- “यह है तुम्हारा मसला? हुँः, पिद्दी न पिद्दी का शोरबा, सिर्फ साये का भूत है मियाँ, साये का भूत; इसमें होना-हवाना क्या है?' लीजिए अब आपसे छिपाना क्या है, बस यही उनका नुसख़ा है।
बात यह है कि चचा की इन बातों में कुछ ऐसा असर होता है कि मन बहल जाता है, बहल क्या बस वदल जाता है और एक ऐसी ताज़गी मन में उभरती है कि सामने के झमेले से लड़ने की ताक़त मिल जाती है।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
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- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
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- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
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- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
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- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
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- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
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- अजी, होना-हवाना क्या है?
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- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में